उदयपुर (udaipur) — ऐतिहासिक परिदृश्य

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उदयपुर (udaipur) — ऐतिहासिक परिदृश्य

 

तत्कालीन मेवाड़ रियासत की यह राजधानी देशी रजवाड़ों के समय में अपने शौर्य एवं पराक्रम के कारण चर्चित रही।

इसका गौरवपूर्ण इतिहास, प्राकृतिक सुषमा एवं धरातलीय विशिष्टता, प्रागैतिहासिक काल के अवशेष, वर्तमान सांस्कृतिक एवं शोध केन्द्र बरबस ही लोगों को अपनी ओर खींचते हैं।

मेवाड़ रियासत की चर्चा के दौरान हम महाराणा प्रताप की शौर्य एवं पराक्रम की चर्चा किए बिना नहीं रह सकते।

उस समय भारतीय राजतंत्र में यही एक मात्र हिन्दु शासक बचा हुआ था। जिसने मुगल सम्राट की अधीनता नहीं स्वीकारी।

अपनी वीरता के दम पर उन्होंने मातृभूमि की रक्षार्थ विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी जनयुद्ध लड़ा और मुगल सम्राट अकबर के हौंसलें पस्त कर दिए।

सुरक्षा की दृष्टि से एवं अन्य कारणों से मेवाड़ रियासत की राजधानी निरन्तर बदलती रही।
जिले के आहोर (भीण्डर), आधारपुर, आहड़, कुम्भलगढ़, नागदा, चावण्ड आदि स्थानों के साथ ही उदयपुर को भी मेवाड़ की राजधानी रहने का सौभाग्य मिला।

अतीत में मेदपाट के नाम से विख्यात मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में पाषाणयुगीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

इस क्षेत्र में प्रारम्भिक मानव का अस्तित्व पाया गया है जो पत्थरों के औजार इस्तेमाल करता था और वह मानव खाने की सतत् खोज में व्यस्त रहता था।

आहड़ एवं गिलूण्ड जैसे स्थानों में हुई पुरातात्विक खुदाई के परिणामस्वरूप प्राप्त भौतिक अवशेषों से ताम्रपाषाण कालीन सभ्यता के अवशेषों का पता चला है जो ईसा से 1800 वर्ष पूर्व की है।

उस समय का मानव उच्च कोटि के चक्र निर्मित काले एवं लाल पात्रों का प्रयोग करता था।
ये आम तौर पर सफेद रंग के पुते होते थे तथा उस काल में ताम्बा धातु का प्रयोग भी प्रचलित था।

कुछ शताब्दियों के बाद आहड़ (आधार नगरी) में ईसा पूर्व ही मानव पुनः आबाद हुआ जिसका सम्बन्ध कुषाणकालीन युग से मेल खाता है।

पुरातत्ववेताओं ने आहड़ के समीप टीले पर हुई खुदाई के अवशेषों के आधार पर हड़प्पा एवं मोहन जोदड़ों की सभ्यता से इस नगर का सम्पर्क रहा होना सिद्ध किया है।

मेवाड़ रियासत देश की प्राचीनतम रियासतों में से है।

जहां ईसा पश्चात छठी शताब्दी में गुहिलवंशियों का शासन रहा, जिनका यश एवं कीर्ति पताकाएं दूर-दूर तक फैली हुई थी।

पौराणिक वंशावली के अनुसार मेवाड़ का राजवंश सूर्यवंशी माना गया है, इतिहासविदों के अनुसार गुहिलवंशी भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज है।

कुछ शिलालेखों एवं प्राचीन सिक्कों के अनुसार गुहिलों के आदि पुरूष गुहदत्त थे जबकि कर्नल टाॅड ने विक्रम संवत 1034 के शिलालेखों की पंक्ति ‘‘जयति श्री गुहदत्त प्रभवः’’ श्री गुहिलवंशस्य के आधार पर गुहदत्त से पूर्व गुहिलवंश का अस्तित्व सिद्ध किया है।

गुहदत्त का छठी शताब्दी में मेवाड़ पर शासन रहा। उन्हीं के नाम के आधार पर यहां के शासक गुहिलवंशी अथवा गहलोत वंशी कहलाए।

मेवाड़ में भी योद्धा रियासती सेना के महत्वपूर्ण अंग थे।

सूर्यवंशी क्षत्रियों के इस राजवंश की धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा थी एवं सम्मान रहा इसीलिए मेवाड़ के राजचिन्ह में एक तरफ राणा तो दूसरी तरफ तीर कमान लिए भील तथा इसके नीचे नीति वाक्य अंकित है।

‘‘जो दृढ़ राखे धर्म को तिहि राखें करतार’’ इसका आशय है कि -संसार का कर्ता परमात्मा उसी की रक्षा करता है, जो अपने कर्तव्य (धर्म) पर दृढ़ रहता है।

मेवाड़ के अधिपति (श्रद्धावश) ‘‘एकलिंगजी-शिव’’ माने गए हैं।

राज सत्ता संचालित करने वाले शासकगण अपने आपको एकलिंगजी का ‘‘दीवाण’’ (मंत्री) मानते हैं।

इसी मान्यता के आधार पर सभी राजकीय दस्तावेजों तथा ताम्रपत्रों पर ‘श्री एकलिंगजी प्रसातातु तथा दीवाणजी आदेशात’ अंकित रहते थे।

मातृभूमि की रक्षार्थ त्याग, बलिदान एवं शौर्य की अनुपम मिसाल महाराणा प्रताप के पिता एवं पन्नाधाय द्वारा रक्षित महाराणा उदयसिंह ने सन् 1559 में उदयपुर नगर की स्थापना की।

उदयपुर शहर का नामकरण इसीलिए उदयसिंह के नाम पर किया गया।

लगातार मुगलों के आक्रमणों से सुरक्षित स्थान पर राजधानी स्थानान्तरित किए जाने की योजना से इस नगर की स्थापना हुई।

सन् 1572 में महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र प्रताप का राज्याभिषेक हुआ।

उन दिनों एक मात्र यही ऐसे शासक थे जिन्होंने मुगलों की अधीनता नहीं स्वीकारी। महाराणा प्रताप एवं मुगल सम्राट अकबर के बीच हुआ हल्दीघाटी का घमासान युद्ध मातृभूमि की रक्षा के लिए इतिहास प्रसिद्ध रहा है।

देश के आजाद होने से पूर्व रियासती जमाने में गुहिल वंश के अंतिम शासक महाराणा भोपालसिंह थे। जो राजस्थान के एकीकरण के समय सन् 30 मार्च 1949 में राज्य के महाराज प्रमुख रहे।

सन् 1948 में संयुक्त राजस्थान राज्य बनने के साथ पूर्व रियासती ठिकानों को मिला कर उदयपुर जिले का गठन हुआ।